लोकसभा चुनाव से पहले जब अखिलेश यादव ने यूपी में सपा-बसपा गठबंधन की पहल की थी तो तमाम जानकार ये कह रहे थे कि अखिलेश का ये कदम ठीक नहीं है. इस कदम से पार्टी के अस्तित्व पर संकट आ सकता है. यहां तक कि सपा संरक्षक मुलायम सिंह भी अखिलेश के इस कदम के खिलाफ हो गए थे. उन्होंने कहा था कि अखिलेश का बसपा से गठबंधन करना मेरे समझ से परे है, उसे पूरी ताकत के साथ अकेले चुनाव लड़ना चाहिए, ऐसे तो हम बिना लड़े ही आधी सीटें हार जाएंगे. मगर अखिलेश ने सबको नजरअंदाज करके मायावती के साथ हाथ मिला लिया.

चुनाव नतीजे आने के बाद जब बसपा के खाते में 10 और सपा के खाते में 5 सीटें आई तो अखिलेश के इस कदम की खुलकर आलोचना होने लगी. सपा के तमाम नेता और कार्यकर्ता निराश थे. मगर तब तक अखिलेश अपनी चाल चल चुके थे. चुनाव नजीजे आने के बाद मायावती ने गठबंधन तोड़ने का एलान कर दिया. अखिलेश ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और वो विदेश दौरे पर निकल गए.

इसके बाद उन्होंने उपचुनाव की रणनीति बनानी शुरू कर दी और आगामी सभी चुनाव अकेले लड़ने का एलान कर दिया. उपचुनाव में अखिलेश की रणनीति काम आई और पार्टी तीन सीटों पर जीत गई. पांच सीटों पर सपा दूसरे नंबर पर रही. इस जीत ने पार्टी को संजीवनी बूटी देने का काम किया.

उपचुनाव के बाद मायावती सख्त हो गई और पार्टी के कई बड़े नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया. ये सख्ती मायावती के लिए मुसीबत बन गई. बसपा नेताओं के लिए समाजवादी पार्टी में जाने की राह आसान हो चुकी थी क्योंकि गठबंधन के दौरान दोनों पार्टियों के नेताओं के बीच तालमेल बन चुका था. अब तक कई बड़े बसपा नेता समाजवादी पार्टी में शामिल हो चुके हैं. कई और नेताओं के शामिल होने की चर्चा है.

मायावती की सख्ती से बसपा कार्यकर्ताओ का उत्साह कम हुआ और दूसरे दलों के नेताओं ने पार्टी में शामिल होने से पहरेज कर लिया. बसपा ने विधान परिषद स्नातक व शिक्षक चुनाव से किनारा कर लिया. इसके उलट अखिलेश लगातार पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं से मिलकर उनका उत्साह बढ़ा रहे हैं.

सपा ने आगामी 6 दिसंबर को डॉक्टर भीमराव अंबेडकर परिनिर्वाण दिवस मनाने का भी एलान किया है. अखिलेश के इस एलान को बसपा नेताओं और वोटरों को अपनी ओर रिझाने की रणनीति का हिस्सा बताया जा रहा है.

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