आईपीएस नवीनत सिकेरा ने अपनी एक और कहानी सोशल मीडिया पर पोस्ट की है. इस कहानी में भी वो अपने बचपन का एक किस्सा सुना रहे हैं कि जब उन्हें कार में बैठने का मौका मिला और पिता को साइकिल चलाते हुए देखा तो उन्हें कैसा महसूस हुआ.

नवनीत सिकेरा ने किस्सा साझा करते हुए लिखा कि बचपन में कार में बैठना एक सपना हुआ करता था, कार भी सिर्फ 2 ही दिखती थीं सड़क पर एक अम्बेसडर और दूसरी फ़िएट, बस इन्ही 2 मॉडल पर पूरा देश चलता था. मैंने भी एक सपना पाल लिया कि अगर खरीद नही पाए तो कम से कम 1-2 बार किराये की कार में बैठूंगा पर बैठूंगा जरूर.

पैदल चलते चलते जिन्दगी भी आगे बढ़ने लगी. 10 वी क्लास में पहुंचा तो पापा ने साईकल दिला दी फिर तो हम शहंशाह बन गए, नुक्कड़ पर बजते हुए गाना सुनने के लिए हल्का ब्रेक लगा देना या कभी कभी ब्रेक लगाकर खड़े हो जाना कि गाना पूरा सुन लो तब आगे चला जायेगा. साईकल जो थी अपने पास, सॉलिड खुशियां थी उस जमाने की अपने पास. देखते देखते हाईस्कूल के बोर्ड की परीक्षा आ गयी.

छोटा सा विद्यालय था वहां पर एक बहुत बड़े घर का लड़का भी पढ़ने आया, शायद इसीलिए कि उसका घर विद्यालय के पास ही था. अब उसके घर को घर कहना ठीक नहीं है उसका घर पूरे स्कूल का ग्राउंड मिला लो तो उससे भी बड़ा बंगला था उसका. पढ़ने में मैं कसकर मेहनत कर रहा था कार के सपने जो पाल लिए थे.

मुझे अच्छे से याद नहीं है कि कैसे पर उस बड़े घर के लड़के से मेरी अच्छी दोस्ती हो गयी थी और मैं बहुत ईमानदारी से बताना चाहूंगा मेरी हैसियत का उससे कोई मुकाबला नहीं था पर मेरा मित्र और उसके परिवार ने मुझे बहुत सम्मान दिया. आंटी एक साथ हम दोनों को खाना खिलाती और हम दोनों एक साथ पढ़ते थे.

समय फुर्र सा उड़ गया हाइस्कूल बोर्ड का एग्जाम का सेन्टर भी आ गया. ये सेन्टर मेरे घर से करीब 10-12 किलोमीटर दूर था, अब मुसीबत ये थी कि एग्जाम देने मेरे पापा मुझे अकेले साईकल चलाकर नहीं जाने देना चाहते थे क्योंकि कई किलोमीटर मुख्य जीटी रोड पर चलना पड़ता था.

खैर पापा ने इंतेज़ाम किया कि या तो वोह खुद मुझे लेकर जाएंगे या किसी को मेरे साथ भेजेंगे. व्यवस्था बन गयी थी पर एक दिन पापा मुझे सेन्टर तक छोड़ आये पर बता कर गए कि उस दिन परीक्षा के बाद शायद न आ पाए या किसी और को भेजे. मैंने कहा ठीक है.

परीक्षा हो गयी और मैं भीड़ में सेन्टर से बाहर आकर पापा को खोजने लगा. वह मेरे को नहीं दिखे, तभी मेरी निगाह अपने उस अम्बेसडर कार वाले मित्र से मिली आज उसकी कार आने में भी देरी हो गयी थी, हम दोनों ही अपनी अपनी सवारी का इंतज़ार कर रहे थे, तभी उसकी कार आती दिखी, मैं सोच रहा था पता नहीं ये मुझसे पूछेगा भी या नहीं.

लेकिन जैसे ही कार आकर रुकी मेरे दोस्त ने मेरा हाथ पकड़ा और बोला मेरे साथ चल. एक तरफ मेरे मन में कार में बैठने का कोतुहल था दूसरी तरफ ये कि पापा भी इस धूप में आते होंगे. उधर दूर दूर तक पापा या कोई साईकल सवार आता हुआ नहीं दिख रहा था. समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ तो सोचा कि मित्र के साथ उसकी कार से ही चला जाता हूँ.
कार चल दी क्या मज़ा आया खुली हुई खिड़की से आती हुई तेज हवा का अलग ही आनंद था.

मित्र ने चॉकलेट निकाला खुद भी खाया और मुझे भी दिया. कार फर्राटे से हवा से बाते कर रही थी. तभी मेरी निगाह सर पर अंगोछा लपेटे तेज पैडल मारते हुए पापा पर पड़ी जो बहुत तेजी से सामने से आ रहे थे, मैं कुछ सोच पाता उससे पहले कार उनके सामने से आगे निकल गयी, मैंने पीछे मुड़कर देखा तो पापा मुझे लेने के लिए तेजी से चले जा रहे थे.

उस समय विचार शून्य हो गया था में न सोच पाया न बोल पाया. थोड़ी ही देर में घर पहुंच गया, पर बहुत असहज हो गया था कि मैंने पापा को आवाज़ देकर रोका क्यों नही, बताया क्यों नही कि आप इतना दूर सेन्टर तक मत जाओ, मैं कार में हूँ और सच मानिए ये बात मुझे आज तक सताती है. (आईपीएस नवनीत सिकेरा की फेसबुक वॉल से)

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