ब्रिटिश राज से पहले भारत आर्थिक रूप से काफी मजबूत था. यही वजह है भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था. राज-रजवाड़ों से लेकर मुगलों तक के खजाने भरे हुए थे. व्यापारी हो चाहें आम जनता सभी धनी थे. वहीं 1700 की शताब्दी में एक ऐसा परिवार सामने आया जिसने भारत में पैसे के लेन-देन, टैक्स वसूली आदि को आसान करने में बड़ी भूमिका निभाई. एक वक्त इनकी दौलत का इतना प्रभाव था कि मुग़ल सल्तनत और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से सीधे लेन-देन करते थे.

इस अपार संपत्ति के चलते फ़तेह चंद को मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह ने 1723 में जगत सेठ का टाइटल दे दिया. जिसके बाद इस परिवार को जगत सेठ के नाम से जाना गया. सेठ मानिक चंद इस घराने के संस्थापक थे.

मानिक चंद का जन्म 17वीं शताब्दी में राजस्थान के नागौर के एक मारवाड़ी जैन परिवार हीरानंद साहू के घर में हुआ था. बेहतर संभावनाओं की तलाश में हीरानंद बिहार चले गए. पटना में हीरानंद ने नमक का कारोबार शुरू किया और पैसा कमाया. इन्होने ईस्ट इंडिया कंपनी से सम्बन्ध भी बनाए और पैसे उधार दिए.

मानिक चंद ने अपने पिता का बिजनेस आगे बढ़ाया और नए क्षेत्रों में कदम रखा. जिसमें पैसे सूद पर देना भी एक बिजनेस था. जल्द ही मानिकचंद की दोस्ती बंगाल के दीवान मुर्शीद कुली खान के साथ हो गयी. आगे उन्होंने बंगाल सल्तनत के पैसे और टैक्स को संभाला. उनका पूरा परिवार मुर्शीदाबाद बंगाल में बस गया.

मानिक चंद के बाद परिवार को फ़तेह चंद ने संभाला. उनके समय में ये परिवार बुलंदियों पर पहुंच गया. ढाका, पटना, दिल्ली सहित बंगाल और उत्तरी भारत के महत्वपूर्ण शहरों में इस घराने की शाखाएं थीं. मुख्यालय मुर्शीदाबाद में ही था. इस घराने की तुलना बैंक ऑफ़ इंग्लैण्ड से भी की गयी.

इन्होने बंगाल सरकार के लिए ऐसे काम किए जो बैंक ऑफ़ इंग्लैण्ड ने 18वीं शताब्दी में ब्रिटिश सरकार के लिए किए थे. इसकी आय के कई स्रोत थे. सरकारी राजस्व वसूलते थे. नवाब के कोषाध्यक्ष के रूप में काम करते थे. जमींदार इस घराने के माध्यम अपने राजस्व का भुगतान करते थे और नवाब फिर इसके माध्यम से दिल्ली को वार्षिक राजस्व का भुगतान किया करते थे. ये सिक्कों का उत्पादन भी करते थे.

इतने अमीर थे 

सेठ मानिकचंद अपने समय में अपने खर्चे पर 2000 सैनिकों की सेना रखते थे. बंगाल, बिहार और ओडिशा में आने वाला सारा राजस्व इनके जरिए ही आता था. उनके पास सोना, चांदी और पन्ना इतना था कि उस वक्त कहावत चली कि जगह सेठ सोने और चांदी की दीवार बना कर गंगा को रोक सकते हैं.

फ़तेह चंद के समय उनकी संपत्ति करीब 10,000,0000 पाउंड थी. आज के समय में ये रकम करीब 1000 बिलियन पाउंड के आसपास होगी. ब्रिटिश दस्तावेजों के अनुसार उनके पास इंग्लैण्ड के सभी बैंकों की तुलना में अधिक पैसा था. अनुमान ये भी है कि 1720 के दशक में ब्रिटिश अर्थव्यवस्था जगत सेठों की संपत्ति से छोटी थी.

अविभाजित बंगाल की पूरी जमीन में लगभग आधा हिस्सा उनका था. यानि मौजूदा समय के असम, बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल को मिला लें तो इसमें आधे का स्वामित्व उनके पास था.

ऐसा हुआ पतन

फ़तेह चंद के बाद 1744 में घराने की बागडोर महताब राय ने संभाली. बंगाल में उनका और उनके चचेरे भाई महाराज स्वरुप चंद का बहुत प्रभाव था. बाद में अलीवर्दी के उत्तराधिकारी सिर्जुद्दौला ने उन्हें अलग-थलग कर दिया.

नवाब सिर्जुद्दौला ने युद्ध में खर्च के लिए जगत सेठ से तीन करोड़ रूपये की मांग की थी. उस वक्त यह रकम काफी बड़ी थी. जब जगत सेठ महताब राय ने इनकार कर दिया तो नवाब ने उन्हें एक झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया.

जगत सेठ को अपने धन-दौलत की सुरक्षा की चिंता सताने लगी. उन्होंने बंगाल के अभिजात वर्ग के कुछ लोगों के साथ मिलकर सिराजुद्दौला के खिलाफ साजिश रची. उनका मकसद सिराजुद्दौला को गद्दी से हटाना था. 1757 में प्लासी के युद्ध के दौरान उन्होंने अंग्रेजों की फंडिंग की. जिसके बाद अंग्रेजों की 3000 सैनिकों की सेना ने सिराजुद्दौला की 50,000 सैनिकों को हरा दिया.

सिराजुद्दौला के बाद मीर जफर की नवाबी में महताब राय का दबदबा कायम रहा. लेकिन जफर का उत्तराधिकारी मीर कासिम उन्हें राजद्रोही मानते थे. 1764 में बक्सर युद्ध के कुछ समय पहले जगह सेठ महताब राय और उनके चचेरे भाई महराज स्वरुप चंद को मीर कासिम के आदेश पर राजद्रोह के आरोप में पकड़ लिया गया और गोली मार दी गयी. उस वक्त महताब राय दुनिया के सबसे अमीर आदमी थे.

इसके बाद जगत सेठ का साम्राज्य ढहने लगा. उन्होंने अपने स्वामित्व वाली जायदातर जमीन पर नियंत्रण खो दिया. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने जो पैसा उनसे उधार लिया था, वह कभी वापस नहीं किया. ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने हाथों में बंगाल की बैंकिंग, अर्थव्यवस्था और सत्ता ले ली. 1900 शताब्दी आते-आते जगत सेठ परिवार लोगों की नजरों से ओझल हो गया. आज उनके वंशजों का पता नहीं है.

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