ट्रेन की पटरी देखने में जितनी साधारण होती हैं हकीकत में वो उतनी साधारण नहीं होती है उस पटरी के नीचे कंक्रीट के बने प्लेट होते हैं जिन्हें स्लीपर का नाम दिया जाता है. इन स्लीपर के नीचे पत्थर यानी गिट्टी होती है. इसे बलास्ट कहा जाता है. इसके नीचे अलग-अलग तरह की दो लेयर में मिट्टी होती है और इन सबके नीचे नार्मल जमीन होती है.

लोहे से बनी एक ट्रेन का वजन 10 लाख किलो तक होता है जिसे सिर्फ पटरी नहीं संभाल सकती हैं. इतनी भारी भरकम ट्रेन के वजन को संभालने में लोहे के बने ट्रैक, कंक्रीट के बने स्लीपर और पत्थर तीनों का योगदान होता है. वैसे देखा जाए तो सबसे ज्यादा लोड इन पत्थरों पर ही होता है.

पत्थरों की वजह से ही कंक्रीट के बने स्लीपर अपनी जगह से नहीं हिलते हैं. अगर ट्रैक पर पत्थर नहीं बिछाया जाएगा तो ट्रैक घास और पेड़ पौधों से भर जाएगंगी, अगर ट्रेन के ट्रैक में पेड़ पौधे उग गए तो तो ट्रेन को ट्रैक पर दौड़ने पर कई दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा. इस वजह से भी पटरी पर पत्थर रहता है.

जब ट्रैक पर ट्रेन चलती है तो कंपन पैदा होता है और इस कारण पटरियों के फैलने की संभावना बढ़ जाती है तो कंपन करने के लिए और पटरियों के फैलने से बचने के लिए ट्रैक पर पत्थर बिछाए जाते है. पटरी पर जब ट्रेन चलती है तो सारा वजन कंक्रीट के बने स्लीपर आ जाता है, इसके आसपास मौजूद पत्थरों से कंक्रीट के बने स्लीपर को स्थिर रहने में आसानी होती है इन पत्थरों की वजह से स्लीपर फिसलते नहीं है.

पटरी पर पत्थर बिछाने का एक उद्देश्य ये भी होता है कि पटरियों में जलभराव की समस्या ना हो, जब बरसात का पानी ट्रैक पर गिरता है तो वो पत्थर से होते हुए जमीन पर चला जाता है इससे पटरियों के बीच में जलभराव की समस्या नहीं होती है. इसके अलावा ट्रैक में बिछे पत्थर पानी से बहते भी नहीं है.

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